लब तरसते हैं तबस्सुम को इक ज़माने से दर्द-ए-दिल कम नहीं होता है मुस्कुराने से इम्तिहाँ इश्क़ में हम ने तो कई बार दिए फ़र्क़ पड़ता नहीं कुछ उन के सितम ढाने से वहशत-ए-इश्क़ में दीवाने फ़ना होते हैं ये सबक़ मिलता है परवानों के जल जाने से दिल बहल जाएगा तन्हाई में बातें कर के जा के इक बुत तो उठा लाओ सनम-ख़ाने से हो गया ख़ाक नशेमन तो ये बादल आए फ़ाएदा कुछ नहीं अब काली घटा छाने से ऐ 'समर' चुप रहो मत छेड़ो यहाँ ज़िक्र-ए-वफ़ा राज़ खुल जाए न अश्कों के निकल जाने से