लब तिरे लाल-ए-नाब हैं दोनों पर तमामी इ'ताब हैं दोनों रोना आँखों का रोइए कब तक फूटने ही के बाब हैं दोनों है तकल्लुफ़ नक़ाब वे रुख़्सार क्या छुपें आफ़्ताब हैं दोनों तन के मामूरे में यही दिल-ओ-चश्म घर थे दो सो ख़राब हैं दोनों कुछ न पूछो कि आतिश-ए-ग़म से जिगर-ओ-दिल कबाब हैं दोनों सौ जगह उस की आँखें पड़ती हैं जैसे मस्त-ए-शराब हैं दोनों पाँव में वो नशा तलब का नहीं अब तो सरमस्त-ए-ख़्वाब हैं दोनों एक सब आग एक सब पानी दीदा-ओ-दिल अज़ाब हैं दोनों बहस काहे को लाल-ओ-मर्जां से उस के लब ही जवाब हैं दोनों आगे दरिया थे दीदा-ए-तर 'मीर' अब जो देखो सराब हैं दोनों