लब-ए-ख़मोश को अरमान-ए-गुफ़्तुगू ही सही जिगर में हौसला-ए-अर्ज़-ए-आरज़ू ही सही असर क़ुबूल है मुझ को बदलती क़द्रों का रग-ए-हयात में अस्लाफ़ का लहू ही सही नमाज़-ए-इश्क़ अदा हो रही है मक़्तल में ये पुर-ख़ुलूस इबादत है बे-वुज़ू ही सही उसे भी ख़ौफ़ है गुलशन में ज़र्द मौसम का वो सुर्ख़ फूल की मानिंद शो'ला-रू ही सही जुनून-ए-इश्क़ के लश्कर से हार जाएगी सिपाह-ए-होश-ओ-ख़िरद लाख जंग-जू ही सही वो मेरी तिश्नगी-ए-दिल बुझा नहीं सकता खनकता जाम छलकता हुआ सुबू ही सही मैं एक हर्फ़-ए-मलामत हूँ उस के दामन पर वो मेरी पाक मोहब्बत की आबरू ही सही मिरी निगाह का मरकज़ नहीं तो कुछ भी नहीं वो ख़ुद-पसंद निगाहों में ख़ूब-रू ही सही 'सबा' कि शाइर-ए-ख़ुश-फ़िक्र है मगर गुमनाम हर एक उस से है वाक़िफ़ वो ख़ुश-गुलू ही सही