मिरी बे-ख़्वाब इन आँखों के मंज़र बोल पड़ते हैं ये चादर बोल पड़ती है ये बिस्तर बोल पड़ते हैं भला कैसे छुपाऊँ अपना ये पुर-दर्द अफ़्साना मैं चुप रहता हूँ तो ग़म के समुंदर बोल पड़ते हैं बजाए आँसूओं के ख़ून बरसाती हैं ये आँखें पुराने ज़ख़्म जब इस दिल के अंदर बोल पड़ते हैं है जिस का नाम सच्चाई बस उस के हक़ में तुम और हम मगर तरदीद में लश्कर के लश्कर बोल पड़ते हैं हमारी लब-कुशाई पर है क्यों कर इतना हंगामा मुसलसल ठोकरें खा कर तो पत्थर बोल पड़ते हैं मियाँ ऐसी अदालत में भला इंसाफ़ क्या होगा जहाँ मज़लूम से पहले सितम-गर बोल पड़ते हैं ग़नीमत है कि अब भी बादलों की ओट से 'तश्ना' अँधेरों के मुख़ालिफ़ माह-ओ-अख़तर बोल पड़ते हैं