लब-ए-नाज़ुक पे जब हँसी आई आग हर-सू बिखेरती आई जाने क्या बैठे बैठे याद आया रुख़-ए-आशिक़ पे ताज़गी आई शाम-ए-ग़म दर्द-ए-दिल बढ़ाने को चाँद के साथ चाँदनी आई आ गए याद ग़म ज़माने के कभी भूले से जो हँसी आई बन गई जान पर मोहब्बत में दोस्ती बन के दुश्मनी आई लज़्ज़त-ए-ज़ुल्म के हैं सब मद्दाह रास उन को सितमगरी आई आँख लड़ते ही मच गई हलचल बात सुनने में तो यही आई जाने क्यूँ देख कर तुझे साक़ी आज फिर याद-ए-मय-कशी आई 'माहिर' आया जो ज़िक्र-ए-हुब्ब-ए-वतन याद-ए-'चकबस्त'-लखनवी आई