लचकती शाख़ पे जब भी नई कली आई उदास फूलों को बे-साख़्ता हँसी आई सवाल ये नहीं अह्द-ए-वफ़ा किया उस ने सवाल ये है मोहब्बत में क्यों कमी आई हसीं दौर जवानी का जब गँवा बैठे मिज़ाज-ए-इश्क़ में तब जा के पुख़्तगी आई हज़ार तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ किया है उस ने मगर मिरे ख़ुलूस में अब तक न कुछ कमी आई ग़म-ए-जहाँ में हुए मुब्तला तो ऐ 'अम्बर' हँसी मिली न हमें रास फिर ख़ुशी आई