लफ़्ज़ों के बरतने में बहुत सिर्फ़ हुआ मैं इक मिस्र ताज़ा भी मगर कह न सका मैं इक दस्त-ए-रिफ़ाक़त की तलब ले के बढ़ा में अम्बोह तरहदार में इक शोर उठा मैं आ तुझ को तक़ाबुल में उलझने से बचा लूँ सब कुछ है तिरी ज़ात में बाक़ी जो बचा मैं मैं और कहाँ ख़ुद-नगरी याद है तुझ को जब तू ने मिरा नाम लिया मैं ने कहा में मैं एक बगूला सा उठा दश्त-ए-जुनूँ से रोका मुझे दुनिया ने बहुत पर न रुका मैं या मुझ से गुज़ारी न गई उम्र-ए-गुरेज़ाँ या उम्र-ए-गुरेज़ाँ से गुज़ारा न गया में मालूम हुआ मुझ में कोई रम्ज़ नहीं है इक उम्र-ए-रियाज़त से गुज़रने पे खुला मैं जो रात बसर की थी मिरे हिज्र में तू ने उस रात बहुत देर तिरे साथ रहा मैं