लगा पहचानने मैं रास्ते जब निकाला उस ने मुझ को शहर से तब हदफ़ क्या था कहाँ पहुँचा है इंसाँ शरफ़ ख़िल्क़त में आ'ला और ये ढब न रक्खी आस जुज़ लुत्फ़-ए-इलाही कि काफ़ी है मुझे मेरा वो इक रब कहें कुछ शैख़ जी क्यूँ कर कटेगी बिना अंगूर की बेटी के ये शब नुमायाँ कर गई हक़ की हक़ीक़त शब-ए-आशूर जो आई थी इक शब मैं आसी हूँ मगर ग़ीबत में 'शारिब' ख़ुदा का शुक्र है खुलते नहीं लब