लहद से याद की इक रोज़ फिर उठी आओ ख़ुदा-न-ख़ास्ता तुम लौट कर चली आओ ख़ुदा-न-ख़ास्ता मैं जाग उठूँ अचानक फिर जो एक दिन कई रातों की तुम जगी आओ ख़ुदा-न-ख़ास्ता मैं भूल जाऊँ फिर तुम को मैं याद कर ही न पाऊँ जो याद भी आओ ख़ुदा-न-ख़ास्ता मुँह फेरने लगूँ तुम से जो मेरे सामने हर दिन लगी बंधी आओ ख़ुदा-न-ख़ास्ता मैं ढूँडने लगूँ तुम को नज़र के सामने जब तुम कभी कभी आओ ख़ुदा-न-ख़ास्ता तुम भी वफ़ा की बात करो जो अपने आप के मेआ'र से गिरी आओ ख़ुदा-न-ख़ास्ता मैं तुम से दूर जाने लगूँ मिरी तरफ़ को जो बे-साख़्ता खिंची आओ ख़ुदा-न-ख़ास्ता हो जाए फिर बहाल वो रंग क़रीब 'असीर' के जब बन के शायरी आओ