लाती है सुब्ह नूर के पैग़ाम रोज़ रोज़ छिड़ता है साज़-ए-गर्दिश-ए-अय्याम रोज़ रोज़ होती है रोज़ रोज़ यहाँ सुब्ह जिस तरह होती इसी तरह है यहाँ शाम रोज़ रोज़ पाने की भूलने की तुझे वक़्त-ए-मर्ग तक करते रहेंगे कोशिश-ए-नाकाम रोज़ रोज़ आग़ाज़ इख़्तिताम में अपने वजूद का देखेंगे अपनी आँख से अंजाम रोज़ रोज़ दीवार में सर अपना जो मारूँ तो गूँजेगा आता है ज़ेहन में जो तिरा नाम रोज़ रोज़ हर शब को आँसुओं में नहाई हुई है आँख दिल ले रहा है ख़ून में हम्माम रोज़ रोज़