लहू में नाचती हमेश्गी उदास हो के रह गई निहाल करने वाली नर्म झील प्यास हो के रह गई वो लज़्ज़तों भरी मोहब्बतों भरी मिलन की एक शब कभी न पूरी होने वाली कोई आस हो के रह गई समझ रहा था मैं जिसे सुहाग रात की विशाल रुत मिरे क़रीब आते आते वो क़यास हो के रह गई हरे लिबास में लगी भली वो एक दूधिया कली न जाने किस तरफ़ चली कि ख़ुश्क घास हो के रह गई उछालना जो चाहता था मैं अवाम के लिए 'ज़फ़र' मिरे ख़याल की वो लहर हर्फ़-ए-ख़ास हो के रह गई