लहू न आँख से टपका न ज़ख़्म-ए-दिल उभरे भरी बहार के ये दिन बहुत गिराँ गुज़रे वो पुर-फ़रेब निगाहें वो ए'तिमाद की मौत न जाने ज़ेहन पे माज़ी के नक़्श क्यों उभरे हसीन लम्हे मिरी ज़िंदगी के लौटा दे जो आरज़ू में कटे तेरी याद में गुज़रे जुनूँ-नवाज़ निगाहें हैं रहनुमा अपनी न जाने क़ाफ़िला-ए-ज़िंदगी कहाँ ठहरे सवाल-ए-तर्क-ए-वफ़ा तुम ने ख़ुद उठाया था उदास क्यों हैं निगाहें ये बाल यूँ बिखरे न जाने आज ही क्यों दिल की नब्ज़ डूब गई तिरे दयार से हम यूँ तो बारहा गुज़रे यही है जान-ए-मोहब्बत यही शुऊर-ए-वफ़ा ज़बाँ ख़मोश निगाहों पे लाज के पहरे क़दम क़दम पे फ़साने बनेंगे ऐ 'माहिर' यहाँ न आँख ही भीगे न मुँह का रंग उतरे