लहू-रंग कैसे हवा बन गया है सलाम-ए-अक़ीदत दुआ बन गया है मैं चलती रही धूप सहती हुई भी सफ़र ख़ुद मिरा रहनुमा बन गया है तसल्ली तसल्ली को देना वो मेरा वही काम मुझ को सज़ा बन गया है जुनूँ-ख़ेज़ लम्हों के इस गुल्सिताँ का शगूफ़ा शगूफ़ा ख़ुदा बन गया है वो इक इस्म इस्म-ए-मोहब्बत 'दुआ' का कड़ी धूप में जो घटा बन गया है