शाम के साहिल पे सूरज का सफ़ीना आ लगा डूबती आँखों को ये मंज़र बहुत अच्छा लगा दर्द के पत्थर सभी आब-ए-रवाँ में घुल गए शोर था कितना मगर आँखों को सन्नाटा लगा चार-सू फैली हुई मौज-ए-नफ़स की गूँज थी मुझ को प्यासी रेत का सहरा भी इक दरिया लगा अन-गिनत साए तिरी तस्वीर में ढलते गए चाँदनी जागी तो हर चेहरा तिरा चेहरा लगा