मसर्रतों का समाँ बरक़रार रखना है

मसर्रतों का समाँ बरक़रार रखना है
तिरे बदन का गुमाँ बरक़रार रखना है

लहू की सुर्ख़ी को आँखों में क़ैद कर लेना
जले जो दिल तो धुआँ बरक़रार खना है

दिल-ओ-दिमाग़ में अन-बन है शहर-ए-जिस्म में फिर
मिज़ाज-ए-अम्न-ओ-अमाँ बरक़रार रखना है

ऐ हुस्न तुझ को सहर तक मिरी इन आँखों पर
तिलिस्म-ए-ख़्वाब-ए-बुताँ बरक़रार रखना है

है बे-क़रार मिरा दिल तो क्या ख़बर उस को
क़रार उस को कहाँ बरक़रार रखना है

ज़माना वज्ह है हम मिल नहीं सके तो हमें
बस एक रब्त-ए-निहाँ बरक़रार रखना है

बदन पे ज़ोफ़ अगर हो तो सीने में मुझ को
मरूँ तो क़ल्ब-ए-जवाँ बरक़रार रखना है

'असीर' शेर तुम्हारे गराँ ज़माने पर
तुम्हें ये तर्ज़-ए-बयाँ बरक़रार रखना है


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