लौ चराग़-ए-हस्ती की हर क़दम पे लर्ज़ां है जब से तुम गुरेज़ाँ हो ज़िंदगी परेशाँ है क़ैद-ए-बे-सलासिल है ताएरों की आज़ादी एहतिसाब हो जिस में वो चमन भी ज़िंदाँ है पल रहे हैं शाख़ों पर ख़ार की तरह हम भी आप की बहारें हैं आप का गुलिस्ताँ है और बढ़ने वाली हैं ज़ुल्मतें शब-ए-ग़म की इन हसीं उजालों में कुछ फ़रेब पिन्हाँ हैं इक नज़र की फ़ुर्सत भी आप को नहीं मिलती कब से मेरे हाथों में आरज़ू का दामाँ है आ के तेरी महफ़िल में हो रहा है अंदाज़ा ज़ीस्त कितनी मुश्किल है मौत कितनी आसाँ है ख़ून शाह-राहों पर ख़ून तंग गलियों में 'सोज़' इस ज़माने में ख़ून कितना अर्ज़ां है