लवें चराग़-ए-वफ़ा की बढ़ा के देखते हैं हम अपना ज़र्फ़-ए-नज़र आज़मा के देखते हैं फिर अपने दिल को किसी ग़म में मुब्तला जानो वो बार बार इधर मुस्कुरा के देखते हैं वो लोग जिन को शुऊ'र-ए-निगाह हासिल है वो अपने आप में जल्वे ख़ुदा के देखते हैं ज़रूर उस के दरीचे से हो के आई है जो बदले बदले से तेवर सबा के देखते हैं सुना है उस की हँसी में है ज़िंदगी 'मोहसिन' तो आओ उस को ज़रा सा हँसा के देखते हैं