सुनना चाहूँ कभी हालात सुनाना चाहूँ उस से मिलने के लिए रोज़ बहाना चाहूँ कोई हद है मिरी वहशत मिरे पागल-पन की लम्हा लम्हा शब-ए-फ़ुर्क़त का सुहाना चाहूँ ग़म ज़माने के चले आएँ मुहाजिर बन कर अपने अंदर में नया शहर बसाना चाहूँ उस के कूचे में भटकने से भी महरूम हूँ मैं रास्ता रोक ले दुनिया जो मैं जाना चाहूँ साया-ए-ज़ुल्फ़ की पुर-कैफ़ फ़ज़ा में 'मोहसिन' दो घड़ी चैन से सोने का बहाना चाहूँ