लज़्ज़त-ए-एहसास-ए-ग़म से दिल को बहलाते रहे कुछ अधूरे ख़्वाब थे रह रह के याद आते रहे मंजिल-ए-ग़ुरबत में पीछे रह गए हुशियार लोग हम दिवाने थे बगूलों में भी इतराते रहे लुटने वालों से मिज़ाज-ए-शाम-ए-ग़ुर्बत पूछिए उन को क्या मालूम जो तूफ़ाँ से कतराते रहे रस्म-ओ-राह-ए-नौ-बहाराँ किस क़दर दिलचस्प है कुछ कली खिलती रही कुछ फूल मुरझाते रहे क्या ख़बर रस्ते में किस ने रूप क्या धारा मियाँ मेहरबाँ वक़्त-ए-सफ़र तो रंग बरसाते रहे रोने वाले बैठे बैठे वक़्त को रोया किए चलने वाले आंधियों में भी चले जाते रहे भागते जाते हैं अब शाम-ए-नज़र से दूर-दूर मुद्दतों तक जो धुँदलके ग़म को रास आते रहे हम तो सारी रात 'नाज़िश' बज़्म में थे दम-ब-ख़ुद लोग अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल की क़सम खाते रहे