लिखा देखा बहुत मैं ने किताबों में फ़सानों में तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में मोहब्बत थी मुझे उस से इबादत कर नहीं पाया पड़ा हूँ हम-कलामी की उमँग में आस्तानों में मैं अपनी बात करने के कहाँ क़ाबिल रहा लोगो कहीं कुछ भी नहीं आया कहीं हूँ राज़-दानों में मैं उस के पास जाता हूँ बहुत नज़दीक लेकिन चुप जहाँ सब माँग लूँ उस से मगर हूँ बे-ज़बानों में उसे फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है मुझे मिलती नहीं साअ'त वो दाता है वो दे देगा मगर मैं ना-मुरादों में मुझे हिलना नहीं आया मुझे चलना ही कब आया मिरे पर भी नहीं मेरे वही है इन उड़ानों में तुम्हारी बात है यकता तुम्हारे रंग अनोखे हैं अनोखे रंगों में रँग के 'सियह' है आसमानों में