लोग आ जाते थे उस पार से कुछ दिन पहले इस जगह पेड़ था दीवार से कुछ दिन पहले अब तिरे इश्क़ का दरबार है हम ख़ादिम हैं हम यूँही फिरते थे बेकार से कुछ दिन पहले पहली तौबा से लिया दूसरी तौबा का जवाज़ आख़िरी बार पी हर बार से कुछ दिन पहले अब ये इक बोरी है जो ख़ून में लत-पत बोरी उस ने तकरार की सरदार से कुछ दिन पहले अहद-ए-नौ में नहीं चलने के हमारे सिक्के हम जो निकले हैं अभी ग़ार से कुछ दिन पहले