मुस्तक़िल हिज्र के अस्बाब लिए बैठे हैं क़िस्सा-ए-हीर को अहबाब लिए बैठे हैं कर गए कूच कहीं दूर के देसों पंछी और हम गाँव में तालाब लिए बैठे हैं काश वो शोख़ कभी बख़्शे हमें इज़्न-ए-क़ुबूल हम रह-ए-शौक़ में ईजाब लिए बैठे हैं बे-लिबासी के तलज़्ज़ुज़ में पुजारी नाचें देवते हाथों में कमख़ाब लिए बैठे हैं दिल के दरिया पे किया रेत ने क़ब्ज़ा 'आसिफ़' आँख के दश्त को सैलाब लिए बैठे हैं