लोग जब जश्न बहारों का मनाने निकले हम बयाबानों में तब ख़ाक उड़ाने निकले खुल गया दफ़्तर-ए-सद-रंग मुलाक़ातों का हुस्न के ज़िक्र पे क्या क्या न फ़साने निकले इश्क़ का रोग कि दोनों से छुपाया न गया हम थे सौदाई तो कुछ वो भी दिवाने निकले जब खिले फूल चमन में तो तिरी याद आई चंद आँसू भी मसर्रत के बहाने निकले शहर वाले सभी बे-चेहरा हुए हैं 'पाशी' हम ये किन लोगों को आईना दिखाने निकले