लुटाए बैठा हूँ रख़्त-ए-सफ़र मोहब्बत में लगाए बैठा हूँ मैं घर का घर मोहब्बत में कटोरे ख़ून के भर भर के देना पड़ते हैं तो जा के आता है कुछ कुछ असर मोहब्बत में क़दम क़दम पे ज़माना हरीफ़ होता है क़दम क़दम पे बिछड़ने का डर मोहब्बत में जलाओ होंट मोहब्बत की पक्की सिगरेट से फिरो उदास रहो दर-ब-दर मोहब्बत में हवास-बाख़्ता फिरता हूँ एक मुद्दत से कि अब तो जाएगा शायद ये सर मोहब्बत में ये आँख दीदा-ए-बीना नहीं बना करती लहू की बूँद न टपके अगर मोहब्बत में