मआल-ए-कार न कुछ भी हुआ तो क्या होगा न हम रहे न ज़माना रहा तो क्या होगा मैं हँस रहा हूँ ज़माने की शाद-कामी पर चराग़-ए-ऐश जो गुल हो गया तो क्या होगा मुझे फ़रेब न दे ऐ तिलिस्म-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल रुख़-ए-हयात अगर फिर गया तो क्या होगा ज़मीर-ए-दहर में वो ज़िंदगी की लहर कहाँ दिलों में सोज़-ए-मोहब्बत रहा तो क्या होगा तलाश-ए-मंज़िल-ए-हस्ती ज़रूर है लेकिन निशान-ए-राह न गर मिल सका तो क्या होगा तुम्हें यक़ीं है कि है खेल रक़्स-ए-बेताबी जो मेरे दिल को सुकूँ आ गया तो क्या होगा मआल-ए-मौसम-ए-गुल है ख़िज़ाँ तो फिर ऐ 'होश' हुई भी दावत-ए-आब-ओ-हवा तो क्या होगा