मैं ने अब समझा है राज़-ए-काएनात कर रहा हूँ ग़म से ता'मीर-ए-हयात किस तवक़्क़ो पर बनाऊँ आशियाँ ज़िंदगी है और बर्क़-ए-हादिसात मंज़िल-ए-ग़म इस क़दर आसाँ न थी रह गए मुँह देख कर सब्र-ओ-सबात जो मोहब्बत से रहा ना-आश्ना हो के रह जाता है नंग-ए-काएनात छा रही हैं हर तरफ़ हैरानियाँ अक़्ल है बेगाना-ए-राज़-ए-हयात मेरे रुख़ पर तो न थे ग़म के निशाँ तुम समझ लेते हो शायद दिल की बात 'होश' क्या कीजे हदीस-ए-ग़म बयाँ कौन कह सकता है दिल की वारदात