माह-ए-कामिल ने मुँह की खाई है आँख जब आप से मिलाई है उन की ज़ुल्फ़-ए-सियाह क्या कहना एक काली घटा है छाई है आ गए आप जब तसव्वुर में ज़िंदगी ज़िंदगी ने पाई है जितना चाहें सताएँ दिल मेरा इन बुतों की अभी ख़ुदाई है ख़ुश-नसीबी है मौत की ला-रैब उन के आग़ोश में जो आई है जब भी रक्खी बिना नशेमन की ख़ाक करने को बर्क़ आई है उन के दामन पे अश्क-ए-ग़म मेरे अज़्मत-ए-बे-पनाह पाई है उठ गए सब हिजाब नज़रों के मुझ को साक़ी ने वो पिलाई है कोई बतलाए इन बुतों ने कहीं रस्म-ए-उल्फ़त कभी निभाई है कोई परवाना जल गया शायद शम्अ की लौ जो थर थर्राई है वो पिला दे ऐ पीर-ए-मय-ख़ाना ख़ास कर छन के मय जो आई है