महकी है मोअ'त्तर है फ़ज़ा उस के लबों से हुस्न-ए-सुख़न और नाम-ए-ख़ुदा उस के लबों से अब वाहिमा-ए-इश्क़ हो या वाहिमा-ए-हुस्न सुनता तो हूँ कुछ ज़िक्र-ए-वफ़ा उस के लबों से ये नग़्मागरी हीला-ए-दीवाना-गरी है आती है बस अब हू की सदा उस के लबों से हर बात शगुफ़्ता ही लिखी उस के लबों की हर आन शगूफ़ा सा खिला उस के लबों से होगा कहीं सपने में छुपा हर्फ़-ए-वफ़ा भी आती तो है ख़ुशबू-ए-वफ़ा उस के लबों से गो रब्त तो कितना है मगर उस पे भी क्या ज़िक्र सुन ले जो कोई नाम मिरा उस के लबों से दुश्नाम भी पाए हुए ख़ुश-काम भी 'हक़्क़ी' हम ने बहुत इनआ'म लिया उस के लबों से