मह-ओ-अंजुम ने क़बा की तो तुम्हारे लिए की चाँद चेहरों पे रिदा की तो तुम्हारे लिए की वो भी था मौज में ये दिल भी बहकने ही को था अपने हाथों ने हया की तो तुम्हारे लिए की कोह-ओ-सहरा में भटकते सर-ए-साहिल फिरते मैं ने हर गाम सदा की तो तुम्हारे लिए की दिल के इस तपते हुए तुंद बयाबाँ के बीच मैं ने इक नहर बना की तो तुम्हारे लिए की मुझ से था बर-सर-ए-कीं रब्त-ए-निहाँ तुम से था दिल ने गर तुम से वफ़ा की तो तुम्हारे लिए की रात मव्वाज थी जब हाथ उठे उस के हुज़ूर सब से पहले जो दुआ की तो तुम्हारे लिए की मैं कहाँ और कहाँ शाएरी मैं ने तो फ़क़त मज्लिस-ए-शेर बपा की तो तुम्हारे लिए की