महरूमियों का दिल पर इतना है कुछ असर सा चाहत के नाम से भी लगने लगा है डर सा इक आह में ढली है रूदाद-ए-ज़िंदगानी उम्र-ए-तवील का है अफ़्साना मुख़्तसर सा रुख़्सत हुआ है दिल से हर शौक़ रफ़्ता रफ़्ता ये शहर-ए-आरज़ू भी बनता चला खंडर सा आता है ध्यान उन का यूँ दश्त-ए-ज़िंदगी में ज़ुल्मत में शब की जैसे हो जल्वा-ए-सहर सा आसूदगी-ए-ग़म ने कितना सुरूर बख़्शा अपने वजूद से भी रहता हूँ बे-ख़बर सा अंदाज़-ए-पुर्सिश-ए-ग़म था दिल-फ़रेब कितना वो दुश्मन-ए-तमन्ना लगता था चारागर सा अश्कों ने ज़ब्त-ए-ग़म की रक्खी है लाज हर दम सौ बार घिर के आया बादल मगर न बरसा राह-ए-हयात में हम तन्हा नहीं 'मुबारक' उन का ख़याल हर दम रहता है हम-सफ़र सा