महशर में भी किसी के उठाएँगे नाज़ हम ऐसे नियाज़-मंद हैं ऐ बे-नियाज़ हम होगी फ़क़त शरीक-ए-दुआ एक बेकसी मय्यत पर अपनी आप पढ़ेंगे नमाज़ हम वाइ'ज़ यही न कह दे कि पैदा ही क्यों हुए दुनिया में आएँ और रहें पाक-बाज़ हम इस में भी कोई भेद है तुम जानते नहीं कहते हैं एक एक से क्यों दिल के राज़ हम जब सुनते हैं कि आप पे दो चार मर गए दिल्वाते हैं रक़ीबों की अपने नियाज़ हम वो दिन गए कि 'दाग़' थी हर दम बुतों की याद पढ़ते हैं पाँच वक़्त की अब तो नमाज़ हम