महव-ए-सज्दा कभी मसरूफ़-ए-दुआ होता हूँ एक लम्हा भी अगर तुझ से जुदा होता हूँ बात करता हूँ तो होता हूँ क़यामत का सुकूत और ख़ामोश जो होता हूँ सदा होता हूँ अपने जज़्बात पे रखता हूँ मुकम्मल क़ाबू मैं किसी पर बड़ी मुश्किल से फ़िदा होता हूँ मेरी फ़ितरत ही नहीं चीख़ने चिल्लाने की मैं तो ख़ुद से भी सलीक़े से जुदा होता हूँ मैं नए अह्द की तहक़ीक़ हूँ तख़्लीक़ नहीं राज़ की तरह किताबों में छुपा होता हूँ आँख में हूँ तो नज़र आता हूँ इक क़तरा-ए-अश्क फैल जाऊँ तो समुंदर से सिवा होता हूँ