मिरा यक़ीन कहीं था मिरा गुमान कहीं मैं खो गया इन्ही दोनों के दरमियान कहीं सुख़न-तराज़ हुआ हूँ मैं अपने दिल के ख़िलाफ़ चिपक न जाए मिरे नुत्क़ से ज़बान कहीं इसी लिए तो कभी मुजतमा' न हो पाया मिरा ज़मान कहीं था मिरा मकान कहीं मिज़ाज-ए-दहर नहीं ए'तिदाल पर साहिब चली न जाए मिरे शहर से अमान कहीं बयान करने लगा हूँ शिकस्तगी दिल की चला न जाए तिरी सम्त मेरा ध्यान कहीं कमंद डाल रहा है दिलों पे ख़ौफ़ 'मुनीर' सिमट न जाए परों में मिरी उड़ान कहीं