मय-कदे से न हरम से न सनम-ख़ाने से आबरू है तिरे ग़म की मिरे काशाने से ज़िंदगी होती जो गुत्थी तो सुलझ भी जाती ये तो कुछ और उलझ जाती है सुलझाने से मौत किस कार-ए-नुमायाँ पे है इतनी नाज़ाँ शख़्सियत मरती नहीं शख़्स के मर जाने से अक़्ल वाले बड़े महदूद-नज़र होते हैं मसअला दिल का है पूछो किसी दीवाने से राज़ ता'मीर का तख़रीब में पोशीदा है शहर लेते हैं जनम गाँव उजड़ जाने से रोज़ उफ़्तादा है क्या जोश-ए-नुमू के आगे मुस्कुराती है सहर शब के सियह-ख़ाने से ग़म से कुछ और निखर जाता है इंसाँ का शुऊ'र जैसे सोना हो खरा आग में तप जाने से