न रह-रौ न मंज़िल न रस्ता हुआ ये जीना भी क्या ख़ाक जीना हुआ हुआ था ज़रा रंज-ए-ग़ुर्बत मुझे मअ'न मेहरबाँ एक काँटा हुआ जो सोचो तो हर शख़्स है नींद में जो देखो तो हर शख़्स जागा हुआ सिमट कर जियूँगा तो मर जाऊँगा मुझे यूँही रहने दो बिखरा हुआ मुझे छेड़ कर लोग पछताएँगे मैं बे-जाम-ओ-बादा हूँ डूबा हुआ मिरे क़ातिलों की वफ़ा देखिए मेरी याद में रात जल्सा हुआ मिरा और उस का तक़ाबुल कहाँ वो दरिया मैं तूफ़ान ठहरा हुआ कहाँ तक समेटेगी दुनिया मुझे न जाने कहाँ तक हूँ फैला हुआ तुम्हीं बढ़ के 'ज़ेबा' इक आवाज़ दो ज़माने को सोए ज़माना हुआ