मैं अभी इक बूँद हूँ पहले करो दरिया मुझे फिर अगर चाहो करो वाबस्ता-ए-सहरा मुझे फैलता ही जा रहा था मैं ख़मोशी की तरह क़ुल्ज़ुम-ए-आवाज़ ने हर सम्त से घेरा मुझे मेरे होने या न होने से उसे मतलब न था तेरे होने का तमाशा ही लगी दुनिया मुझे लोग कहते हैं किसी मंज़र का मैं भी रंग था तू ने ऐ चश्म-ए-फ़लक उड़ते हुए देखा मुझे आश्ना उस पार के मंज़र नहीं मुझ से मगर जानता है धुँद की दीवार का साया मुझे मैं कि सन्नाटों का मुबहम इस्तिआ'रा था कोई दास्ताँ होता ज़माना शौक़ से सुनता मुझे शुक्र है मैं इक सदा था ताइर-ए-मअ'नी न था वर्ना वो तो ज़ेर-ए-दाम-ए-हर्फ़ ही रखता मुझे मैं ही मैं हूँ और बदन के ग़ार में कोई नहीं कर दिया तन्हा सगान-ए-दहर ने कितना मुझे