मैं अगर सूरत-ए-परवाना फ़िदा हो जाता उन को अंदाज़ा-ए-आईन-ए-वफ़ा हो जाता अपनी क़ुदरत से लिया काम इलाही तू ने वर्ना इस दौर का हर शख़्स ख़ुदा हो जाता हम ने तक़दीर के मफ़्हूम को समझा वर्ना हम को भी शिक्वा-ए-अर्बाब-ए-जफ़ा हो जाता तुम अगर देखने वाले को नज़र आ जाते हश्र से पहले ही इक हश्र बपा हो जाता अपने गुलशन को वो दोज़ख़ न समझता शायद यक गोशा भी जो फ़िरदौस-नुमा हो जाता तू ने पहचान लिया इश्क़ की क़द्रों का मिज़ाज ये न पूछ आज तिरी बज़्म में क्या हो जाता अपनी ग़ैरत से बचाए रहा अपने को 'अज़ीज़' वर्ना अहबाब के हाथों ही फ़ना हो जाता