मैं अक्सर सोचती हूँ ज़िंदगी को कौन लिक्खेगा न मैं लिक्खूँ तो फिर इस बेबसी को कौन लिखेगा बहुत मसरूफ़ हैं अहल-ए-जहाँ हर्ज़ा-सराई में अब आशोब-ए-सुख़न में बे-हिसी को कौन लिक्खेगा कई सदियाँ गुज़ारीं मंज़िलों के खोज में फिरते तो फिर मेरे सिवा इस गुमरही को कौन लिक्खेगा हम इस शहर-ए-जफ़ा-पेशा से कुछ उम्मीद क्या रक्खें यहाँ इस हाव-हू में ख़ामुशी को कौन लिक्खेगा उसे फ़ुर्सत नहीं साहिल, समुंदर, मौज लिखने से परेशाँ हूँ मिरी तिश्ना-लबी को कौन लिक्खेगा 'हिजाब' इस शहर-ए-ना-पुरसाँ में सब झगड़ा अना का है सुरूर-ए-ख़ुद-परस्ती में ख़ुदी को कौन लिक्खेगा