मैं ब-ज़ाहिर ज़रा सा टूटा हूँ अपने अंदर ज़ियादा टूटा हूँ हादसों में तमाम सालिम थे शहर-भर में अकेला टूटा हूँ राख मेरी फ़ज़ा भी पा न सकी इस क़दर जा के ऊँचा टूटा हूँ छत के नीचे वजूद आहों का छत पे जा कर सरापा टूटा हूँ मुंतशिर था वजूद ही सारा देखने में अधूरा टूटा हूँ मंज़िलों की किसे ख़बर है 'सबा' ख़ौफ़ से रस्ता रस्ता टूटा हूँ