मैं बात कौन से पैराया-ए-बयाँ में करूँ जो सोचता हूँ उसे किस ज़बान में लिखूँ कतर दिए हैं ज़माने ने पँख ख़्वाबों के भरा है साग़र-ए-हसरत में आरज़ूओं का ख़ूँ नहीं है कुश्ता-ए-ख़ूबाँ का ख़ूँ-बहा कोई ऐ अहल-ए-शौक़ न खाओ फ़रेब हर्फ़-ए-फ़ुसूँ कभी है चाँद का हाला नक़ाब-ए-लाला कभी अनीले रंग दिखाती है ज़ुल्फ़-ए-ग़ालिया-गूँ ज़माम-ए-राहिला-ए-दिल ख़िरद के हाथ में दो कि मारती है हवस इस नवाह में शब-ख़ूँ अब इस को ख़ाना-ख़राबी कहो कि मामूरी ज़मीं में साथ ख़ज़ाने के धँस गया क़ारूँ बनू-तमीम हो तुम मैं सलामा-बिन-जिंदल बिला-जवाज़ तुम्हारी सना मैं कैसे करूँ परिंदगान-ए-बयाबाँ करें वसीला जिसे मैं उस अमीन के ख़िर्मन के ख़ोशा-चीनों में हूँ शहीद-ए-इल्म भी हूँ ज़िंदा-ए-मोहब्बत भी ब-फ़ैज़-ए-ज़ौक़-ए-सलीम-ओ-तबीअ'त-ए-मौज़ूँ शरीक-ए-ज़ुमरा-ए-मेहनत-कशाँ है शाइ'र भी बहा-ए-सद-नफ़स-ए-ख़ूँ-चकाँ है इक मज़मूँ अनाड़ी-पन न कहो मेरी सादा-लौही को हूँ नौ-नियाज़ मगर कुहना-मश्क़-ए-जज़्ब-ओ-जुनूँ बला-ए-जब्र भी है पा-ए-इख़्तियार भी है क़ुसूर-वार हूँ मैं या सदा-ए-कुन-फ़यकूँ दरा-ए-फ़र्रा-ए-फ़रहंग देखो रंग-ए-सुख़न अबुल-कलाम नहीं मैं अबुल-मअानी हूँ