मिज़ाज-ए-शहर की ख़ुश्की से अजनबी मैं था परम्परा की कहानी में बिदअती मैं था ग़रीक़-ए-फ़िस्क़ के चेहरे को याद फिर से कर मसर्रतों भरे होंटों पे कपकपी मैं था तिरा ये ज़ो'म कि तू ख़ुद ही आ गया है यहाँ ऐ ना-समझ तिरी आँखों की रौशनी मैं था ग़ज़ल ग़ज़ल पे तवज्जोह समेटने वाले तिरा किनाया-ओ-तश्बीह-ओ-शायरी मैं था जिसे तू शान से सर पर उठाए फिरता है उसी ज़राफ़त-ए-दिल का धरा कभी मैं था तिरे वजूद से थी रंगत-ओ-बहार-ओ-सबा तिरे चमन के गुलाबों की ताज़गी मैं था मुझे निकाल के उस ने भला किया 'मंसूर' बहिश्त-ज़ार का बस इक जहन्नमी मैं था