मैं दिल में ज़ख़्म उस के फिर सुलगता छोड़ आया हूँ कि सेहन-ए-गुलसिताँ में इक शरारा छोड़ आया हूँ कड़कती धूप में बादल बरसता छोड़ आया हूँ मैं उस की आँख में अश्कों का दरिया छोड़ आया हूँ बरा-ए-रोज़गार आया तो हूँ परदेस में लेकिन किसी को घर की चौखट पर मैं रोता छोड़ आया हूँ दिया ले कर चला हूँ मैं जहाँ में रौशनी करने मगर अपने घर आँगन में अंधेरा छोड़ आया हूँ अमीरों ने भुला डाला रिवायात-ए-क़दीमा को मगर घर में ग़रीबों के मैं पर्दा छोड़ आया हूँ वो जिन के सीने में हर दम तअ'स्सुब रक़्स करता था दिलों में उन के भी उल्फ़त का जज़्बा छोड़ आया हूँ निगाह-ए-बद न पड़ जाए कहीं सय्याद की या-रब मैं अपने घोंसले में एक बच्चा छोड़ आया हूँ उसे महरूमी-ए-क़ुर्ब-ए-वफ़ा का क्या हो अंदाज़ा मैं उस के पास यादों का सहारा छोड़ आया हूँ 'हिलाल' इंसानियत जिस पर पशेमाँ हो के रोती है मैं वो गुलशन वो सहरा वो इलाक़ा छोड़ आया हूँ