मैं एक अंधे कुएँ का क़ैदी किसे मिलूँगा कहाँ मुझे ढूँढने चली है नजात मेरी ख़जालत-ए-दरगुज़र से लब पर दुआ न ठहरी दर-ए-समाअत से लौट आई है रात मेरी मैं किस के क़ौल ओ क़रार से अपने अश्क पोछूँ मुकर गई है ख़ुद अपने वादों से ज़ात मेरी है तिश्नगी का नया ही इक ज़ाइक़ा लबों पर सराब अंदर सराब गर्दां हयात मेरी तनाब-ए-ख़ेमा के टूटने तक क़याम मेरा कि शाख़-ए-आहू पे आज भी है बरात मेरी