मैं एक रेत का पैकर था और बिखर भी गया अजब था ख़्वाब कि मैं ख़्वाब ही में डर भी गया हवा भी तेज़ न थी और चराग़ मर भी गया मैं सामने भी रहा ज़ेहन से उतर भी गया न एहतियात कोई काम आया इश्क़ के साथ जो रोग दिल में छुपा था वो काम कर भी गया अजब थी हिज्र की साअत कि जाँ पे बन आई कड़ा था वक़्त वो दिल पर मगर गुज़र भी गया हवा से दोस्ती जिस को था मशवरा मेरा उसी चराग़ की लौ से मैं आज डर भी गया कभी न मुझ को डराएगा मेरे बातिन से ये अहद कर के मिरा आईना मुकर भी गया किनारे वाले मुझे बस सदाएँ देते रहे भँवर को नाव बना कर मैं पार उतर भी गया मैं ख़ाक-ए-पा सही कम-तर मुझे न जान कि मैं ग़ुबार बन के उठा आसमान पर भी गया मैं अपने जिस्म के अंदर था आफ़ियत से मगर लहू के सैल-ए-बला-ख़ेज़ में ये घर भी गया ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था सज़ा ये है कि मिरा तीशा-ए-हुनर भी गया