मिरी आह-ओ-फ़ुग़ाँ से बे-समाअत हो गए हो क्या अभी तो इब्तिदा की है अभी से सो गए हो क्या भरे बाज़ार में तन्हाइयों को ढूँडने वालो मिरे ज़ौक़-ए-जुनूँ में तुम भी शामिल हो गए हो क्या वो गुल जिस के लिए ये आसमाँ मौसम बदलता है उसी का बीज मेरी ख़ाक-ए-जाँ में बो गए हो क्या कोई आवाज़ क्यूँ देते नहीं साँसों के मरकज़ से कि तुम भी ज़िंदगी के पेच-ओ-ख़म में खो गए हो क्या कभी झाँका है तुम ने डूबते सूरज की आँखों में कभी तुम झील के उस पार भी यारो गए हो क्या ये बे-ख़्वाबी का आलम और हर आहट पे चौंक उठना दरीचा क्यूँ खुला रखते हो पागल हो गए हो क्या वो जिस पर ख़ेमा-ज़न थे क़ाफ़िले लैला-परस्तों के कभी उस रास्ते पर भी बताओ तो गए हो क्या ज़माने को कभी तस्वीर-ए-हैरत बन के देखा है कभी बे-सम्त राहों पर भी दरवेशों गए हो क्या ज़माने को कभी तस्वीर-ए-हैरत बन के देखा है कभी बे-सम्त राहों पर भी दरवेशों गए हो क्या सुनाओगे कहाँ तक दास्तान-ए-ख़ैर-ओ-शर अपनी 'ज़िया' इस दश्त-ए-जाँ में बन के क़िस्सा-गो गए हो क्या