मैं ज़ेर-ए-साया कहीं महव-ए-ख़्वाब था भी नहीं कि आ के धूप जगाती मैं जागता भी नहीं हरीम-ए-नाज़ मिरी दस्तरस से दूर तो है मिरे जहान-ए-तख़य्युल से मावरा भी नहीं यही है अद्ल तो ऐसे निज़ाम-ए-अद्ल पे ख़ाक है फ़र्द-ए-जुर्म भी आएद मिरी ख़ता भी नहीं हम अपनी जान के दुश्मन को अपना दोस्त कहें हमारे पास कोई और रास्ता भी नहीं हम आ के अपने घरों में सुकूँ से बैठ गए बईं-हमा कोई ख़तरा अभी टला भी नहीं कहाँ पे लाई है ये शब-गज़ीदगी हम को चराग़ बुझ भी गए मुश्तइ'ल हवा भी नहीं असा को डाल दें दरिया में रास्ता हो जाए हमारे पास कोई ऐसा मो'जिज़ा भी नहीं इसी जहान में 'अख़लाक़' ऐसे लोग भी हैं जो नेक भी हैं और उन का कोई ख़ुदा भी नहीं