मैं जिस से कभी नहीं मिला हूँ इक उम्र से उस को जानता हूँ गुल भी हैं मुझे अज़ीज़ लेकिन काँटों के लिए बरहना-पा हूँ इक ज़ख़्म हूँ और सूरत-ए-गुल अपने ही वजूद में खिला हूँ चाहत भी अगर है जुर्म कोई अच्छा तो मैं तुम को चाहता हूँ ज़ख़्मों को हुरूफ़ में बदल कर तारीख़-ए-बहार लिख रहा हूँ किस किस का हदफ़ नहीं मिरी ज़ात अच्छा हूँ तो और भी बुरा हूँ साए को ख़बर नहीं है 'शाइर' मैं देर से धूप में खड़ा हूँ