मैं जो तन्हा रह-ए-तलब में चला मेरा साया मिरे अक़ब में चला सुब्ह के क़ाफ़िलों से निभ न सकी मैं अकेला सवाद-ए-शब में चला जब घने जंगलों की सफ़ आई एक तारा मिरे अक़ब में चला आगे आगे कोई बगूला सा आलम-ए-मस्ती-ओ-तरब में चला मैं कभी हैरत-ए-तलब में रुका और कभी शिद्दत-ए-गज़ब में चला नहीं खुलता कि कौन शख़्स हूँ मैं और किस शख़्स की तलब में चला एक अंजान ज़ात की जानिब अल-ग़रज़ मैं बड़े ताब में चला