मैं ख़ुदी में मुब्तिला ख़ुद को मिटाने के लिए तू ने तो हर ज़र्रे को ज़ौ दी जगमगाने के लिए एक अदना से पतिंगे ने बना दी जान पर शम्अ ने कोशिश तो की थी दिल जलाने के लिए बर्क़-ए-ख़िर्मन सोज़ाब रखना ज़रा चश्म-ए-करम चार तिनके फिर जड़े हैं आशियाने के लिए मुँह नहीं हर एक का जो सख़्ती-ए-गर्दूं सहे कुछ कलेजा चाहिए वो ज़ख़्म खाने के लिए ख़ूब बुलबुल को सिखाया नाला-ए-मस्ताना-वार ख़ूब ग़ुंचे को समझ दी मुस्कुराने के लिए इस क़दर अर्ज़ां हुई है आज कल जिंस-ए-कमाल झूटे सिक्के ढल रहे हैं हर ख़ज़ाने के लिए ख़्वाब में भी अब नहीं 'शाइर' वो गर्मी-ए-कलाम शम्अ सी इक रह गई है झिलमिलाने के लिए