मैं मसरूर हूँ उस से महजूर हो कर कि मुझ से मिला वो बहुत दूर हो कर तिरी शान-ए-जिद्दत-पसंदी के क़ुर्बां कि मुख़्तार ठहरा मैं मजबूर हो कर वो शक्लें जो दिल में कभी जल्वा-गर थीं नज़र आएँ बर्क़ सर-ए-तूर हो कर उठा डाले सारे हिजाबात मैं ने शराब-ए-मोहब्बत से मख़मूर हो कर उमीदों की दुनिया न हो जाए वीराँ फ़रेब-ए-तजस्सुस न दे दूर हो कर जो मिलना न 'साक़िब' से तुम चाहते थे तो क्यूँ उस को आवाज़ दी दूर हो कर